Thursday, 2 April 2015

अगर कहो तो आज बता दूँ
मुझको तुम कैसी लगती हो।
मेरी नहीं मगर जाने क्यों,
कुछ कुछ अपनी सी लगती हो।


नील गगन की नील कमलिनी, 
नील नयनिनी, नील पंखिनी।
शांत, सौम्य, साकार नीलिमा
नील परी सी सुमुखि, मोहिनी।
एक भावना, एक कामना,
एक कल्पना सी लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।



तुम हिमगिरि के मानसरोवर 
सी, रहस्यमय गहन अपरिमित।
व्यापक विस्तृत वृहत मगर तुम
अपनी सीमाओं में सीमित।
पूर्ण प्रकृति, में पूर्णत्व की 
तुम प्रतीक नारी लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।



तुम नारी हो, परम सुन्दरी
ललित कलाओं की उद्गम हो।
तुम विशेष हो, स्वयं सरीखी
और नहीं, तुम केवल तुम हो।
क्षिति जल पावक गगन समीरा 
रचित रागिनी सी लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।



कभी कभी चंचल तरंगिनी
सी, सागर पर थिरक थिरक कर
कौतुक से तट को निहारती
इठलाती मुहं उठा उठा कर।
बूँद बूँद, तट की बाहों में 
होकर शिथिल, पिघल पड़ती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।



सत्यम शिवम् सुन्दरम शाश्वत
का समूर्त भौतिक चित्रण हो।
सर्व व्याप्त हो, परम सूक्ष्म हो,
स्वयं सृजक हो, स्वतः सृजन हो।
परिभाषा से परे, स्वयं तुम
अपनी परिभाषा लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।



अगर कहो तो आज बता दूँ
मुझको तुम कैसी लगती हो।
सत्य कहूं, संक्षिप्त कहूं तो,
मुझको तुम अच्छी लगती हो।

- विनोद तिवारी
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